Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएं--सीमांत-3



3
उस दिन संध्या को घर में रोगिनी और डॉक्टर के सिवा कोई नहीं था। सिरहाने के पास रंगीन कागज के आवरण से घिरा हुआ मिट्टी के तेल का लैम्प धीमी रोशनी फैला रहा था। कॉर्नस पर रखीं हुई टाइमपीस निस्तब्ध कमरे में टिक-टिक शब्द का सुन्दर राग अलाप रही थी।
यतीन ने चुनिया के ललाट पर हाथ फेरते हुए पूछा- "अब कैसा लगता है चुन्नी?"
चुनिया ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया; परन्तु यतीन का वह हाथ अपने क्षीण हाथों से ललाट पर ही दबा रखा।
यतीन ने पुन: पूछा- "अच्छा लगता है।"
चुनिया ने सुन्दर आंखों पर पलकों के तनिक कपाट बन्द करते हुए कहा- "हां।"
यतीन ने उस उंगली से संकेत करके पूछा- "चुन्नी, तुम्हारे गले में यह क्या है?"
चुनिया ने शीघ्रता के साथ साड़ी का पल्लू खींचकर उसे ढकने का यत्न किया। यतीन ने देखा, उसके गले में मौलसिरी के फूलों का सूखा हुआ हार पड़ा है। टाइमपीस के टिक-टिक शब्द के बीच यतीन चुपचाप बैठा सोचने लगा। अपनी हृदय की बात को छिपाने का यह प्रथम प्रयास है। चुनिया मानो पहले एक मृगछोना थी। मालूम नहीं किस घड़ी हृदय भार से आतुर हो यौवन की मादकता का रूप धारण कर बैठी? किस धूप के उजाले में उसकी ज्वाला की तीक्ष्ण लपटों से चुनिया की समझ पर आच्छादित कुहरा हट गया। उसकी लज्जा, शंका, वेदना, सभी एकदम प्रकाशित हो उठे।
और इन्हीं विचारों में खोये चौकी पर बैठे-ही-बैठे, न जाने कब यतीन की पलकें नींद के बोझ से दब गईं। वह रात्रि के अन्तिम पहर में अचानक द्वार खुलने की आवाज से चौंककर उठ गया। उसकी आंखों ने देखा पटल और हरकुमार बाबू बड़ा-सा बैग लिए कमरे में दाखिल हो रहे हैं।
हरकुमार बाबू ने बैग को कमरे में रखकर और यतीन के पास पहुंचकर कहा-"तुम्हारा पत्र पाकर सवेरे ही चल देने का मैंने विचार किया था; लेकिन जब रात को सो रहा था तो करीब ग्यारह-बारह बजे पटल ने जगाकर कहा- "अजी, सुनते हो, कल सवेरे जाने पर चुनिया को नहीं देख पाएंगे। हमें इसी समय पहुंचना होगा।" उसे मैं किसी प्रकार भी समझा नहीं पाया। तब चटपट एक गाड़ी भाड़े पर लेकर हम लोग उसी क्षण घर से निकले।"
पटल ने तभी अपने पति से कहा- "चलो, यतीन के बिछोने पर आप आराम करें।"
हरकुमार बाबू तनिक-सी आपत्ति का भान करते हुए यतीन के कमरे में जाकर लेट गए और फिर पलक बन्द करते हुए तनिक भी देर नहीं लगी।
रोगिनी के कमरे में वापस आने पर पटल ने यतीन को एक कोने में बुलाकर पूछा- "कुछ आशा है।"
यतीन ने चुनिया की नाड़ी को टटोल सिर हिलाते हुए जताया- "नहीं।"
पटल ने चुनिया के निकट अपने को प्रगट किये बिना ही यतीन को फिर ओट में करके पूछा- "यतीन! सच कहना तुम क्या चुनिया को नहीं चाहते?" इस बार यतीन ने पटल के प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। वह वहां से हटकर चुनिया के बिछौने के छोर पर बैठ गया। उसका हाथ अपने हाथों में धीरे से दबाता हुआ बोला- "चुन्नी! चुन्नी! चुन्नी!"
चुनिया ने आंखों पर से पलकों का आवरण हटाकर चेहरे पर शांत मधुर हंसी का आभास लाते हुए कहा- "क्या है?"
यतीन आशातीत स्वर में बोला- "चुन्नी! अपना यह हार मेरे गले में पहना दो।"
वह निर्निमेष एवं विमूढ़ नेत्रों से केवल यतीन के चेहरे की ओर ताकती रह गई।
यतीन ने फिर कहा- "अपना यह हार क्या मुझे नहीं पहनाओगी चुन्नी?"
यतीन के निकट इस तनिक से दुलार का सहारा पाकर चुनिया के मन में पहले किए गए अनादर का थोड़ा-सा अभिमान जाग उठा, बोली- "इससे क्या होगा?"
यतीन ने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में समेटते हुए कहा- "मैं तुम्हें प्यार करता हूं चुन्नी।"
यतीन के इस वाक्य को सुनकर पल भर के लिए चुनिया स्तब्ध रह गई। फिर उसके दोनों नेत्रों से अविरल खारा जल बहने लगा। यतीन बिछौने से उतरकर भूमि पर घुटने टेककर बैठ गया और चुनिया के हाथों के पास उसने अपना सिर रख दिया। चुन्नी ने अपने गले का हार उतारकर यतीन के गले में पहना दिया।
तब पटल ने चुनिया के पास आकर पुकारा- "चुनिया।"
स्वर को पहचानते ही चुनिया का कांतिहीन मुख चमक उठा, बोली- "क्या है, दीदी?"
पटल उसके क्षीण हाथों को अपने हाथों में थामकर बोली- "अब तो तू मुझसे नाराज नहीं है बहन।"
चुनिया ने स्निग्ध कोमल दृष्टि पटल के चेहरे पर फेंकते हुए कहा- "मैं नाराज कहां थी, दीदी?"
पटल की ओर कोई उत्तर नहीं मिला। वह मुड़कर यतीन से बोली- "यतीन! तुम थोड़ी देर के लिए उधर वाले कमरे में जाकर बैठो।"
यतीन बिना किसी संकोच के चुपचाप चला गया। पटल ने उसके जाते ही बैग खोलकर उसमें से सारे आभूषण और वस्त्र निकाले। फिर रोगिनी को बिना हिलाये-डुलाये खूब सावधानी से उसके कमजोर हाथों में कुछ चूड़ियों को पिरोकर दो कंगन भी पहना दिए। इसके बाद आवाज दी- "यतीन!"
यतीन आ गया। तब उसे शैया पर बिठकार पटल ने उसके हाथों में चुनिया का एक सोने का हार थमा दिया। यतीन ने धीरे-धीरे चुनिया का सिर ऊंचा करके हार उसके गले में पहना दिया।
उषा की लाली में जब सूर्य की प्रथम किरण चुनिया के चेहरे पर पड़ी, तब उसे देखने के लिए वह वहां नहीं थी। उसके अम्लान मुख की कांति देख कर ऐसा प्रतीत नहीं होता था, कि वह मरी पड़ी है। यही जान पड़ता था, मानो किसी अतलस्पर्शी सुखद स्वप्न में वह पूर्णरूप से लीन हो चुकी है?
जब उसके शव को लेकर चलने का समय आया। तब पटल चुनिया की छाती पर पछाड़ खाकर गिर पड़ी और क्रन्दन स्वर में बोली- "बहन! तेरे भाग्य अच्छे थे जीवन की अपेक्षा तेरा मरण ही अधिक सुखद हुआ।" और चुनिया की शान्त-स्निग्ध मृत्यु छवि की ओर निहारते हुए यतीन के अन्तर में बारम्बार यही भाव उठने लगा- जिसका यह धन था, उसी ने ही वापस ले लिया; किन्तु उसने मुझे भी उससे वंचित नहीं रखा।
श्मशान घाट पर पहुंचकर शव जल उठा। शोकातुर अवस्था में यतीन ने अज्ञात प्रेम की सीमा का अन्त कर दिया।

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